(ग्यारह)


काफी सुबह आंखे खुल गयी झींगना की, किन्तु अनमने मन से बिस्तर पर लेटे - लेटे उजाला होने का इन्तजार करने लगा । अचानक उसके कानों में सुबह की अजान के साथ तान पूरे की कर्ण प्रिय धुन जब धुले - मिले रूप में गूंजी तो चौंक गया वह एक बारगी । संगीत के मधुर एहसास का आकर्षण उसे खिंचता चला गया वहां, जहां ताहिरा संगीत - सरोवर में निमग्न थी ।


एक कोने में बैठकर संगीत का आनन्द लेने लगा वह कि यकवयक ताहिरा की निगाहें उसके तरफ मुड़ी । ताहिरा मन्द - मन्द मुस्कुरायी और झींगना से रूबरू होती बोली -
“आपको संगीत का शौक है जनाब ?”

“हां, हरमोनियम बजा लेते हैं हम -- ।” शर्माते हुए झींगना ने कहा ।

“शरमाइए मत जनाब ! आपके बगल में रखा है हारमोनियम, कुछ गाइए आप भी।”

“क्या गांए ताहिरा जी ?”

“कोई अच्छा सा गीत -- ।”

“पराती गाएं ?”

“पराती क्या होता है ?”

“सुबह का गीत -- ।”

“नहीं, कोई मौसम गीत गाइए, जिसमें बसंत का एहसास हो - गांव का चित्र हो -- प्रेम हो -- सौंदर्य हो -- और -- ।”
“बस, बस, चुप्प रहिए ताहिरा जी हम समझ गये आपकी बात -- लेकिन --।”

“लेकिन क्या ?”

“आपको भी हमारे साथ गाना होगा -- ।”

“हां, हां, क्यूं नहीं, पहले शुरू तो कीजिए आप -- ।”

“हिन्दी में सुनायें ?”

“हां, हां, भोजपुरी गाने में मैं कभी - कभी लड़खड़ा जाती हूं -- ।”

“ठीक हैं, हिन्दी में ही गाते हैं क्या ?”

“हां, हां, शुरू कीजिए झींगना साहब !”

झींगना की उंगलियां स्पर्श की हारमोनियम के बटनों को जब, संगीत की ऐसी मधुर स्वर लहरी प्रष्फुटित हुई, सुर, सरस्वती, संस्कृति की ऐसी त्रिवेणी प्रवाहित हुई कि अन्दर तक गहरे रोमांचित होती चली गयी ताहिरा । फिर जब स्वर फूटे झींगना के, तो हत्प्रभ रह गयी वह । झींगना ने अलाप लेते हुए गाना शुरू किया, कि -

“अनुप्रास हुआ मन - मंदिर
जीवन मधुमास हुआ !
भ्रमरों के होंठों पे बासंती - गीत,
मनमीत हुए सरसों में मादक एहसास हुआ !!
अनुप्रास हुआ - ।

मुखड़ा गाने के बाद रूक गया झींगना और ताहिरा से मुखातिब होते हुए बोला -
”आप भी गाइए न हमारे साथ -- ।”

ताहिरा ने गाना शुरू किया, कि - ”अनुप्रास हुआ मन - मंदिर -- जीवन मधुमास हुआ -- भ्रमरों के होंठों पे बासंती - गीत -- मनमीत हुए सरसों में मादक एहसास हुआ -- अनुप्रास हुआ -- ।”

झींगना ने गाने के बोल आगे बढ़ाते हुए स्वर दिया -
“प्रीति की ये डोर बांधे, पोर - पोर सांसो को,
सुुबह में शीत जैसे चुम्बन ले घासों को ,
आम की लताओं पे बैठी - बैठी कोयलिया -
गीत बांचे गोबिन्दम् ओढ़ के कुहासों को ।
नगमों की बारिश में भीगा है बदन -
मन हुआ कबीर तन औचक बिंदास हुआ -- अनुप्रास हुआ -- ।”

फिर दोनों एक साथ गाने लगे । दोनों साधकों के मधुर स्वर का संगम होते ही लगा जैसे ठिठक गयी हो प्रकृति अनायास ही ।

”झूम करके सांवरी धटा चली है रातों में,
चूम करके चांद को रिझा रही है बातों में,
सुरमई सी आंखों में श्याम की छवि आयी -
बाबरी हुई मीरा, खो गयी है यादों में ।
बांसों की झुरमुट से निकला है स्वर -

डर गया है सुर - पंचम कैसा उण्हास हुआ - - अनुप्रास हुआ -- ।”

झींगना गाते - गाते अचानक रूक जाता है और ताहिरा से कहता हैं कि - ”ताहिरा जी ! यह मौसम प्रेम का मौसम होता है, जिसमें नाचने को आतुर होता है मन -- गाने को आतुर होते हैं कंठ -- और नयन तो प्रेयसी के दीदार को बेचैन रहता है हर क्षण -- हमारे समझ से यही वह मौसम रहे होंगे जब विश्वामित्र का आसन डोला होगा -- ताहिरा जी ! इस मौसम की मादकता तब है जब धिर जाए धटाएं आसमान में --इन पंक्तियों पर घ्यान दीजिए -

झमक - झीमिर, तीपिर - तीपिर होने लगा छप्पर से ,
धमक - धीमिर, ढ़ीपिर - ढ़ीपिर बजने लगा अम्बर से,
देहरी के भीतर से झांक रही दुल्हनियां -
साजन की यादों में खोयी हुई अन्दर से ।
आंखों में सपने हैं, ह्रदय में हाहास -
सांसों में अनायास बृज का मधुर बास हुआ -- । अनुप्रास हुआ -- ।”

दोनों संगीत के सरोवर में इतने गहरे डूब गये, कि दिन चढ़ने का एहसास तक नहीं हुआ । बस गाये जा रहे - गुनगुनाये जा रहे दोनों के दाना। झींगना की पूर्ण लालित्य गंबई - शैली में भीतर तक समा गयी ताहिरा कि जैसे सुध - सुध खो बैठी हो । प्रकृति - चित्र, रस माधुर्य, भाषा और अलंकार प्रयोग से शब्द, रस व भाव की चित्रमय झांकी ताहिरा की हृदयानुभूतियों को स्पंदित कर रही हो । दोनों साधकों की साधना तब भंग हुई, जब ताली बजाते हुए घर के भीतर प्रविष्ट हुए मित्तल साहब । ताहिरा मुड़ी और मित्तल साहब को आदाब अर्ज करती हुई पूछी - ”सुबह - सुबह कैसे आना हुआ चाचा ?”

मित्तल साहब मुस्कुराते हुए बोले - “दरअसल बेटा, जब से लखनऊ तबादला होकर आया, कभी ठीक से घूमा नहीं लखनऊ । आज मॉर्निंग वाक्र करते हुए इच्छा हुई चौधरी की गढ़ैया देखता चलंू -- और सुबह की चाय तुम्हारे यहां पीऊं -- ।”

“चौधरी की गढ़ैया ?” ताहिरा चौंकी ।

“हमारे कुलीग हैं अशरफ मियां, उन्होने ही बताया इसके बारे में ।”

“क्या खासियत है चाचा, हमें भी बताइए -- ।”

“अशरफ मियां कह रहे थे, कि एक बार शहर के तमाम तालाब आबादी की बलीबेदी पर चढ़ गये, वहीं यहां स्थित कच्चा तालाब भी शहीद कर दिया गया । बादशाह नसीरूददीन हैदर के साले अली मुहममद खां उर्फ नबाब सिराजुदौला की कोठी चौधरी की गढ़ैया पर ही थी और वे गढ़ैया के नबाब कहे जाते थें । यहीं पर ढ़ाई सौ वर्ष पुरानी पंच मीनारा मस्जिद है, जिसे जाफरी बेगम की मस्जिद कहा जाता है । शमशाबाद में उनकी ससुराल थी,सो इसे मस्जिद शमशाबाद भी कहा जाता है- ।”

“तब तो बहुत खुबसुरत होगी ये मस्जिद ?” ताहिरा ने उछलते हुआ पूछा ।

“तुम अभी तक गई नही वहां ?”

“कभी अब्बू ने चर्चा नहीं की -- ।”

“अरे बेटा ! यह तुम्हारे पास के सिटी स्टेशन के पीछे ऊंचे टीलों पर स्थित है । मैं कभी धुमाऊंगा तुम्हें । इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि उंची कुर्सी पर बनी हुई इस मस्जिद के नीचे - नीचे चारों तरफ सहनचियां बनी हुई है । सचमुच यह मस्जिद अवध की तत्कालीन बास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।”

“और क्या खासियत है चाचा ?”

“हमें तो उस मस्जिद को देखकर नूर साहब का एक शेर याद आ रहा हैं । तुम कहो तो अर्ज करूं ?”

“इरशाद !” ताहिरा ने कहा ।

अर्ज किया है - जबीं को दर ये झुकाना बन्दगी तो नहीं, ये देख मेरी मुहब्बत में कुछ कमी तो नही -- ।”

“वाह चाचा वाह ! आप तो अब शायरी भी करने लगे - - ।”

“बेटा, तुम्हारी सोहबत का असर है --।” मित्तल साहब ने मुस्कुराते हुए कहा। सभी बार्तालाप में मशगूल थे, कि अचानक असद मियां ने चाय की प्याली बढ़ाते हुए कहा -

“साहब ! बिना शक्कर की चाय --।”

“शुक्रिया असद मियां !”

मित्तल साहब चाय की चुक्की ली और ताहिरा की ओर मुखातिब होते हुए पूछा - “सिकन्दर दिखायी नहीं दे रहा ?”
“अब्बू निशातगंज गये हैं बिजनेस के काम से -- ।”

“और सब खैरियत है न बेटा !”

“हां चाचा, मगर -- ।”

“मगर क्या बेटा ?”

“हमारे यहां एक मेहमान आए हैं, उन्हीं के बारे में कुछ अर्ज करना था -- ।”

“कल रात फोन पर सिकन्दर भी बता रहा था किसी झींगना के बारे में --।”

“हां चाचा, वह झींगना साहब आप ही हैं-- ।” ताहिरा ने झींगना की ओर संकेत किया ।

”अभी तो इसकी आवाज मैंने सुनी, अच्छा लगा -- चलो कुछ करता हूँ इसके लिए भी -- ।”

“बड़ी मेहरवानी होगी आपकी !” दानों हाथ जोड़ते हुए झींगना ने मित्तल साहब से कहा ।

“बेटा ! मेहरवानी नहीं कहो -- वह इंसा ही क्या जो इंसान के काम न आ सके -- तुम्हारी प्रतिभा ले जाएगी तुम्हें ऊंचाई तक -- ।”

“चाचा ! तो समझूं कि काम हो गया -- ?”

“हां, बिल्कुल बेटा ! अपने नये मेहमान को लेकर कल सुबह ग्यारह बजे विधान सभा मार्ग वाले स्टूडियो में आ जाना -- मैं वहीं मिलूंगा -- अच्छा काफी देर हो गयी, मैं चलता हूँ -- ।”

“चाचा, एक प्याली चाय और ?”

“नहीं बेटा, फिर कभी -- काफी देर हो गयी है -- ।”

तहिरा झींगना के साथ मित्तल साहब को छोड़ने दरवाजे तक आयी और विदा किया ।


.....क्रमश:........१२

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